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खोंइछा

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खोंइछा एक रस्म हैं,जो बेटी की शादी के बाद ससुराल के लिए बिदाई के वक्त निभाया  हैं। यह लोक परम्परा हैं , पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रहीं हैं। इस रस्म में हरी दुब ,धान ,हल्दी की गाँठ ,सिंदूर ,जीरा ,साम्यर्थ के अनुसार रुपया ,पैसा ,सोने , चांदी  का  सिक्का देते हैं। खोंइछा में जमीन ,मकान ,गाड़ी  ,भी देते हैं। पुराने समय में जमींदारी भी दिया   जाता था। बाँस से बने हुए सुप या डगरा जो गोल सा बना होता हैं। इसे शुद्ध माना जाता हैं। इसी में सभी सामग्री रखी जाती  फिर उसे  भाभी ,दीदी या माँ, चाची  अंजुरी से बारी बारी पांच बार बेटी के आँचल में या खोईछादानी में डालती हैं। पुनः खोइछा में से चुटकी से पांच बार सामग्री निकल कर सुप या डगरा में रख लेती हैं  यह सामग्री भंडार में रखी जाती है या खीर बना का छोटे सदस्यो को खिला दिया जाता हैं। बेटी के ससुराल में भी इस खोइछा को उसकी नन्द द्वारा खोला जाता है ,और उसमे का चावल को भी  खीर बना कर  छोटे सदस्यों खिला दिया जाता हैं।

इस रस्म का मूल प्यार के साथ दान है. जिस पुत्री को अपने जान से ज्यादा प्यार करते हैं ,उसे उसकी जीवनकी  खुशियाली बनी रहे, सुख समृद्धि से उसका संसार भरपूर रहे। तभी उसको खोइछ में दुभी ,धान हरदी सिंदूर सिक्का से आँचल भर कर ससुराल बिदा किया जाता हैं। माता पिता बेटी  को भरपूर दे कर आनंदित होते हैं। खोइछा पूर्णतः स्वेक्छा से दिया जाने वाला स्त्री धन हैं। जिसमे बेटी का मान सम्मान पूर्णतः सुरक्षित रहता हैं ,

खोइछा भरना एक धार्मिक कार्य भी जिसमे नवरात्री में माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया जाता हैं। सुहागिन महिलाओं द्वारा लाल कपड़ा  चुंदरी ,नारियल, चावल ,बताशा ,हल्दी मिठाई ,फूल अनार केला शृंगारसामग्री जिसमे चूड़ी बिंदी सिंदूर आलता  दर्पण कंघी ,सुगन्धित तेल ,इत्र ,कुंकुम, काजल,बल बांधने वाला फीता ,और यथा संभव सिक्का रखा जाता हैं।  सभी सामग्री को लाल कपडे में बाँध कर चुंदरी सहित माँ को समर्पित किया  जाता हैं। माता रानी का खोइछा भरना बहुत ही ख़ुशी और सौभाग्य की बात  हैं क्योकि जो  सौभाग्यवती हैं वही माताजी  की खोइछा भर पाती  हैं। जिनके ख़ुशी की मन्नत होती हैं वहीं पूरा करते है।

इस तरह हमारे  समाज में खोइछा रस्म बहुत ही सौभाग्यसूचक  मंगलकारी हैं। बिहार उत्तरप्रदेश ,सहित अनेकों  राज्यों में प्रचलित प्रथा मातृ शक्ति  भाव को समर्पित हैं  .हमारी भारतीय संस्कृति में  पोषण करने और दान देने की परम्परा को सर्बोपरी माना  जाता हैं।

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