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गीता जयंती पर एक विचार

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अगहन मास  की शुक्ल पक्ष की एकादसी तिथि मोक्षदा एकादसी कहलाती हैं। मान्यता है की द्वापर युग में इसी दिन कुरुक्षेत्र में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था।  यह दिन गीता जयंती के रूप में मनाई जाती हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने  अर्जुन  के निर्बल परे मन को  अपने उपदेश से ज्ञान योग और भक्ति मार्ग  के सूत्र बतलायें।  अर्जुन के काँपतें हाथ, लडख़ड़ाते पैर बेजान दृष्टि को कृष्ण ने सच दिखाया।  परमात्मा की अविनश्वर ,अविचल ,स्वरुप के दर्शन के साथ जीवन के सार बताया। जो जन्म लिया हैं ,उसे मृत्यु मिलेगी  ही।  जो अनश्वर हैं वह  है परमात्मा ,हमें  उनकी  शरण  में  रहना  ही  हमारी भक्ति है। हम कहाँ  हैं , किससे हैं ,किसके लिए हैं , यही चिंतन ही हमारा  उद्देश्य  होना चाहिए। जब  भगवान ने अर्जुन की ज्ञान -पिपाशा को अपने विराट स्वरुप का दर्शन कराया तो अर्जुन किंचित  घबराया होगा उस  दिव्यदर्शन को देख कर। कृष्ण पर दृढ विश्वास हीं उसके भय को दूर  किया।  कृष्ण की विराट दर्शन में ब्रम्हांड में हो रही घटनाओं , क्रिया- प्रतिक्रियाँ सभी का परमात्मा में समाहित होना अर्जुन के मोहजनित  भ्रम को दूर किया।

 

आज के सन्दर्भ में हम गीता जयंती पर एक चिंतन करते हैं।  गांधीजी को गीता पर असीम आस्था थी , उनका मानना था की मैं जब भी किसी  समस्या में घिरता हूँ , तो गीताजी के शरण में जाता हूँ । किसी न किसी श्लोक  में  समस्या का हल मिल ही जाता हैं। ऐसे में गीता का ज्ञान हमारी चेतना को जागृत कर ऊर्जावान बनता हैं, तर्क और कुतर्क के बीच  फर्क बताता हैं।

विज्ञान हमे जीने का साधन देता हैं   लेकिन जीवन  जीने  की  कला  गीता ज्ञान  में  निहित हैं l  विष्णु  रूप  श्री  कृष्ण  के मुखारबिंद  से  निकली वाणी  हैं,  जो  अध्यात्म शास्त्र  भागवत गीता  के  रूप मे संकलित  हैं।  भगवान  कहते की शास्त्रों  में  भागवत  गीता मेरा  ही स्वरुप हैं। भगवत गीता के तेरहवे अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज  का ज्ञान दिया हैं। शरीर क्षेत्र कहलाया और क्षेत्र को जाननेवाले को क्षेत्रज  कहा गया। शरीर वह क्षेत्र हैं जहा घटनाये घटित होती हैं। जन्म,  मृत्यु , इसी में होती हैं , किन्तु मूल तत्व जो इन घटनाओं के पीछे साक्षी रूप में रहता हैं वह क्षेत्रज हैं। यहाँ पर किसी प्रकार की टीका नहीं कर रहे हैं बल्कि गीताज्ञान से इंसान के अंदर जो ऊर्जा मिलती हैं, जो प्रकाश का अनुभव होता हैं उसी सन्दर्भ में चर्चा किया गया हैं। टीकाकार मानते हैं की शरीर रूप क्षेत्र में साक्षी भाव की चेतना जो निरिक्षण कर रही हैं वही परमत्मा हैं।  हमे उसी के शरण  में पूर्ण विश्वास के साथ रहना चाहिए।  वही सत्ता हमे भटकाव से रक्षा करेंगी। उनका यह भी कहना हैं , की हमारे उपनिषद, धर्म सूत्र, में  वर्णित ज्ञान का सर्वांश गीता हैं।  उपनिषद धर्मसूत्र यदि गाय हैं ,तो गीता उसका दुग्ध। कहने का तात्पर्य यही समझ में आता हैं, की हमे अपने बौद्धिक क्षमता को आध्यात्मिक विद्या के सहारे बढ़ने का क्रम बनाना चाहिए।

समय और काल का प्रभाव हमेशा से रहा हैं।  किसी भी काल ,समय स्थान के अनुसार टीकाकार टीका करते रहे हैं, और समाज को दिशा देते रहे हैं।  आज भी जिस तरह का वातावरण और सामाजिक घटनाक्रम चल रहा हैं, उसमे महान विचारक सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी लिखित भगवतगीता एक नयी राह दिखा रही हैं।  संस्कृत के श्लोकों के साथ सरल व्याख्या ह्रदय को असीम शांति का अनुभव करानेवाली ,  ज्ञानक्षुधा  को तृप्त करनेवाली हैं। गीता ईश्वर की वाणी हैं, हमे सुनना चाहिए। गीता कल्पवृक्ष हैं , हमारी कामनाओं को पूर्ति करती हैं।  हमारी संकल्पो को पूर्ण करने में सामर्थ्य हैं। गीता ज्ञान की गंगा हैं , हमे उसमे नित्य डुबकी लगानी चाहिए। सारे पापों  को नाश करती हैं। हमारी अक्षमता , असमंजस , असंतोष को दूर करती हैं।  अन्धकार से प्रकाश की ओर , मृत्यु से अमरत्वो की ओर  ,अज्ञान से ज्ञान की ओर ले के जाती हैं। जहाँ मनुष्य अपने गलत धारणाओं के कारण  पतनोनोमुख होता हैं वहाँ  पर गीता के कर्मयोग का आलम्बन, हमारे कलमशकासए को धो डालता हैं। सहज ही हमे स्वीकार करना चाहिए की हम हमारी चेतना को समर्थवान बनाना चाहते हैं।  अपने उलझनों को दूर करना चाहते हैं, तो हमे गीता ज्ञान का अनुशरण करना परम लक्ष्य होना चाहिए।  हमारे अध्यात्म शास्त्र के अंतर्गत गीता , गंगा ,गाय और गायत्री को मोक्षदायनी बताया गया हैं। ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय नमः।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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