अक्षुण्ण विरासत
September 27, 2020
वो संघर्ष का दौर था, निजी भावनाओं ऊपर
सर्वोपरि कुछ और था ,
जूनून जोश और अम्बर, जितने का ख़्वाब था ,
अपनी धारा आबो हवा,
अपना सब कुछ पा लेने का उल्लास था,
खोने को सब कुछ, पर पाने की जिद थी ,
” खुली साँसे ”
कुछ नन्हे कदम किशोरावस्था के ,
तो कुछ उम्र के जीर्ण पड़ाव पे,
पर आत्मा ,विचार
सामान रूप से स्वर्णिम, स्वच्छ , सुदृढ।
जो भयंकर अग्नि दासता की,
प्रज्वलित वर्षो से थी,
सींचने चल पड़े, लहू से अपने
राख करने का दम भरे ,
छोर आंचल और आंगन ,
और न जाने कितने खुशियों के पल,
अनगिनत सुकून के पल, सुबह संध्या को कर विकल।
चल परे पथ पर जैसे हो ,धारा की गति कल- कल।
कोई कहे अगर अपना कुछ भी गर शेष रहा होगा
वो बढ़ चले हो कर निर्मम अपने छद्म आवेगो से,
कुछ अपनों से आँखों और मन में बसे सपनो से
सरल हो सकता नहीं , मानसिक बंधनो से उबरना
कठिन द्वंद से ये तय हैं , की पड़ा होगा गुजरना ,
शब्द आसमान सा जुटा दो ,फिर भी कम पड़ेगा वर्णन
वो अनगिनत सिपाही दे कर चले गए ,
खुले आसमान और धरा की,
अक्षुण्ण विरासत