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दिव्य कलश

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एक दिव्य  कलश चाहिए ,जिसमें सन्तुष्टि  का स्वाद भरा हो। प्रभु के सामने मैंने अपनी कामना को रखा। प्रभु ने पूछा ,क्यों चाहिए तुम्हें सन्तुष्टि का दिव्य कलश। प्रभु ने मुझ पर ध्यान दिया और मेरी इक्क्षा को जानना चाहते हैं ,इस बात से मेरा मन  प्र्फुल्लित हो  गया। इस बिचार को पुष्टि मिली की भगवान मेरे लिए ही बात कर रहे हैं। यह बड़ी बात हैं जो मुझे  अपनी बात प्रभु के सामने रखने का अवसर मिला और प्रभु  मेरे बात पर विचार किये।मैंने अपने को संयत किया फिर बोला ,प्रभु आप कृपालु हो, दयानिधान हो ,सृष्टि के रचईता सब का पालन करने वाले हो आप से मेरी बिनती हैं ,आप मेरा मार्ग दर्शन करें।

प्रभु ,आज तक मैंने जो भी पाया उससे मैं संतुष्ट नहीं हुआ हूँ  और जो भी मैंने दूसरे के लिए किया उससे जगत संतुष्ट नहीं हुआ। यह हमें चैन से रहने नहीं दे रहा हैं ,क्या करू? प्रभु मेरे प्रश्नों को  धैर्य से सुन रहे थे ,मैं दयनीय भाव सेउनकीओर देख रहा था  उनके होठों पर मंद मंद मुस्कान बिखरी हुई थी एकटक मुझे देखते हुए मुझसे प्रश्न किए। बेटा संतुष्ट नहीं होने का क्या कारण हैं बताओ। मैंने  हाथ जोड़ कर आद्रभाव से बोला ,पता नहीं ,मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा हैं। प्रभु आप ही कुछ बतलाइए।  प्रभु ने जोर का ठहाका लगाया   और बोले  ,बेटा  तुम बहुत नादान हो ,जरा से बात नहीं समझ पाए। मैं तुम्हें बतलाता हूँ  चलो ,अब ध्यान से सुनो।

बेटा  तुमने जो पाया वह भगवान  की अनुकम्पा थी जिसका माध्यम जगत बना  जहाँ तुमने जीवन के  बिभिन्न पहलुओं को जिया और उसमे रचने बसने का अवसर प्राप्त किया। संभावनाओं से भरा जगत तुम्हारे लिए खुला पड़ा हैं। तुम अपनी अपेक्षाओं को बड़ा करते जा रहे हो और हमेशा ही यह अनुदान कम  पड़ने लगा। जितना भी मिला वह तुम्हारी अपेक्षा से  कम  ही लगा फिर संतुष्टि कैसे मिलेगी।  वहीं  तुमने जो जगत के लिए किया वह भी एहसान के रूप में दिया ,तुमने जो भी किया उसके बदले अपेक्षाओं को थोप दिया फिर उस कर्म का कद घट गया। तुम्हारे कर्मो को अहसान और थोपा गया अपेक्षा मिल कर जगत को अतृप्त बना दिया। अब बताओ तुमने क्या छोड़ा और क्या दिया ?जबाब तुम्हारे पास हैं। मैं  अवाक् निरुत्तर था।

मेरा दिल दिमाग में एक भूचाल चल रहा था ,संतुष्टि का दिव्य कलश  की कामना मेरी अन्तरात्मा को झकझोर रहा था। हे मानव प्रभु ने सहज रूप में तुम्हारे कर्तब्य को समझा दिया ,अब तो समझो।  महत्वाकांक्षाऔर स्वाभिमान उन्नति के आधार स्तम्भ हैं किन्तु अति से बचना भी जरुरी हैं। शास्त्रों में कहा गया हैं  अति सर्बत्र वर्जयते। मैं बार बार इन्हीं का मनन कर रह था। तभी ध्यान में मजबूती से विचार आया  जैसे भी हो अपनी अपेक्षाओं को सीमित करो  सांसारिक ब्यवहार में अपना अहसान और अपेक्षा को मत थोपो। स्वतः हर परिवेश में एक परिस्थिति बनती हैं जो सबको एक नैसर्गिक ख़ुशी प्राप्त होती हैं। उस क्षण का सम्मान करो। फिर देखो कैसे आत्मा सन्तुष्ट और प्रसन्नचित होती हैं। अंतरात्मा की आवाज में मुझे उत्तर मिल गया। मैं खुशी से झूम उठा.मेरी आत्मा को  तृप्ति मिल रही थीं। आत्म संतुष्टि का सूत्रका दिव्य कलश मुझे मिल गया।   मैं  धन्य हूँ। प्रभु आप की कृपा सदा सब पर बनी  रहे आप धन्य हो।

सच ही कहा हैं ,स्वंम का मन स्वस्थ होता हैं  तो सारी दुनिया सुन्दर दिखती हैं। लेकिन स्वंम बिमार या अशांत होतेहैं तो सारी  दुनिया ही अस्तब्यस्त नजर  हैं।

 

 

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