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असहजता

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प्रकीर्ति ,समय की

प्रतिकूलता ही ,

बिपत्तिकाल हैं।

 

हर मोड़ पर

परिस्थितिओं ,

की

असमानता ,

कठोरता से भावनाओं को

दमन

करती हैं।

 

साथी मन  ही

परवाह

कर सकता हैं ,

उस क्षण की ,

कोलाहल

और

तड़प की।

 

 

किसी के ,

हाथो की ऊँगली

बनती हैं ,

सहारा।

जीवन में ,

स्थाई स्तम्भ की ,

भूमिका

निभाना  नैतिकता हैं ,

पर

आदर्श  आशावादिता की

पराकाष्ठा हैं ,

जो गिरा हैं ,

उसे उठाना ,

होंसलों को

बुलंदी देना भी किसी की

फितरत हैं।

 

चोट देने वाले ,

दे कर ,

चले जाते हैं ,

मरहम ,

लगाने वालों  की

औकात

अलग हैं।

 

काश

संकट में हर कोई ,

असहजता

को दूर फेंक ,

अपनेपन का उत्साह ,

जगा जाता

धन्य धन्य

होता

ब्यक्ति और ब्यक्तित्व।

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